यासिन मालिक ने 25 अगस्त 2025 को दिल्ली हाई कोर्ट में दाखिल अफ़िडेविट में एक ऐसे खुलासे को सामने रखा जो भारतीय राजनीति को हलकों‑हलकों में हिला दे। उन्होंने कहा कि 2006 में पाकिस्तान में लश्कर‑ए‑तहरीब (LeT) के संस्थापक और 26/11 के मास्टरमाइंड हाफ़िज़ सईद से मुलाक़ात के बाद, तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने निजी तौर पर उनका धन्यवाद किया। यह जानकारी न केवल भारत‑पाकिस्तान के पार-आकाशीय समझौते की परछाई को उजागर करती है, बल्कि मौजूदा सुरक्षा‑नीतियों के सामने सवाल भी खड़े करती है।
पृष्ठभूमि और दावे
मालिक का कहना है कि यह मुलाक़ात उनके अपने इरादे से नहीं, बल्कि तब के विशेष निदेशक इंटेलिजेंस ब्यूरो (IB) वी.के. जोशी के निर्देश पर हुई। 2005 में कश्मीर में आए विनाशकारी भूकंप के बाद, जोशी ने न्यास दिल्ली में मालिक से मुलाक़ात की और उन्हें पाकिस्तान जाने की सलाह दी। ऐसा करने के पीछे, मालिक के अनुसार, भारत‑पाकिस्तान के बीच एक बैक‑चैनल शांति प्रक्रिया चल रही थी, जिसमें आतंकवादी संगठनों के शीर्ष शख्सों को समझौते में लाने की कोशिश की जा रही थी।
दावे के अनुसार, पाकिस्तान पहुँचे मालिक ने हाफ़िज़ सईद के साथ कुछ घंटे बिताए, जहाँ दोनों ने संभावित शांति‑समझौते के विकल्पों पर चर्चा की। इस दौर में मालिक ने अन्य कश्मीर‑सेपरेटिस्ट नेताओं और आतंकवादी कमांडरों से भी मुलाक़ात की, सभी को विशेष रूप से भारतीय गुप्तचर एजेंसियों ने निर्देशित किया था।
होटल में दिल्ली लौटते ही, IB के विशेष निदेशक ने मालिक को तत्काल प्रधान मंत्री के पास ले जाने का निर्देश दिया। उसी शाम मालिक ने मनमोहन सिंह और राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार एम.के. नारायन को मुलाक़ात की पूरी रिपोर्ट दी। मालिक ने बताया कि इस रिपोर्ट में वह अपने प्रयासों, धैर्य और समय की सराहना के साथ प्रधानमंत्री की कृतज्ञता का उल्लेख करता है। "मैंने उनके सामने अपने मिशन की पूरी तस्वीर रखी, और उन्होंने मेरे काम के लिए धन्यवाद कहा," उन्होंने अफ़िडेविट में लिखा।
हालाँकि, 2019 में अनुच्छेद 370 और 35ए के निराकरण के बाद, यह समान मुलाक़ात एक अलग संदर्भ में पेश की गई। मालिक का मानना है कि इस मुलाक़ात को ‘उपनियमित आतंकवादी कार्यवाही’ (UAPA) के तहत उनका मुकदमा दर्ज करने के लिए इस्तेमाल किया गया, जिससे उनके खिलाफ ‘क्लासिक धोखा’ साबित हुआ। वह यह भी दावा करते हैं कि उन्होंने 1990 से छह विभिन्न केंद्र सरकारों के साथ एक ‘कामकाजी संबंध’ बनाए रखा था, किन्तु यह ही मुलाक़ात अब उनके खिलाफ मोड़ ली गई।

राजनीतिक प्रतिध्वनि
इस अफ़िडेविट के खुलासे ने राष्ट्रीय मंच पर भड़कती हुई मारपीट को बढ़ा दिया। बीजिंग-भवन के आईटी प्रमुख अमित मालविया ने इस दस्तावेज़ को अपनी ट्विटर (X) पर साझा कर कहा, "यह शॉकिंग है! अगर ये सच्चाई है तो UPA सरकार की सुरक्षा नीति पर सवाल उठते हैं।" उन्होंने इस बात को भी रेखांकित किया कि सरकारी गुप्तचर एजेंसियों ने आतंकवादी के साथ ‘बैक‑चैनल’ संचार क्यों किया और क्या यह भारत की राष्ट्रीय सुरक्षा के लिये ‘सुरक्षित’ था।
इसी बीच कांग्रेस ने इस मुद्दे को उल्टे मोड़ में पेश किया। पार्टी के प्रवक्ता पवन खेड़ा ने बताया कि वही संचार बीजेजे की सरकार के समय में भी हुआ था, जहाँ अटल बिहारी वाज़पेयी ने भी कश्मीर के अलगाववादी नेताओं से मुलाक़ात की थी। इस कारण, कांग्रेस ने कहा कि ‘संवाद’ की नीति किसी एक पक्ष की नहीं, बल्कि सभी शासकों की सामान्य रणनीति रही है।
कानून की बात करें तो, इस अफ़िडेविट का उपयोग NIA ने दिल्ली हाई कोर्ट में अपने मौजूदा जीवनकैद को मौत की सज़ा में बदलने की अपील में किया है। मालिक ने यह अफ़िडेविट उसी के जवाब में दायर किया है, ताकि अदालत को दिखा सके कि पिछले सालों की बैक‑चैनल डिप्लोमेसी को अब नज़रअंदाज़ कर उन्हें यूएपीए के तहत सिर पर लाया जा रहा है। इस बीच, कई राजनैतिक विश्लेषकों का मानना है कि यह मामला भारतीय न्यायिक प्रणाली की ‘जटिलता’ और ‘राजनीतिक प्रभाव’ को उजागर करता है।
माध्यमों में इस पर बहस तेज़ है। कई समाचार चैनलों ने इस घटना को ‘इतिहास का नया अध्याय’ कहा, जबकि कुछ विचारकों ने इसे ‘रिपब्लिक के सामने सरकारों के द्वंद्व का प्रतिबिंब’ बताया। यह सब इस बात को दर्शाता है कि जमीं‑और‑कश्मीर की स्थिरता के लिये किस स्तर पर ‘संवाद’ और ‘सुरक्षा’ के बीच संतुलन स्थापित किया जा सकता है। इस बिंदु पर, अदालत का निर्णय, यदि हो भी, तो यह तय करेगा कि क्या अफ़िडेविट में दिया गया ‘धन्यवाद’ एक राजनैतिक साधन था या फिर यह सुरक्षा नीतियों की एक गंभीर चूक।
जैसे ही यह मामला सार्वजनिक चर्चाओं में और गहराता है, यह स्पष्ट है कि भारतीय राजनीति में ‘बैक‑चैनल राजनयिकता’ कभी भी पूरी तरह से छिपी नहीं रहती। चाहे वह UPA हो या BJP, हर सरकार को इस बात का सामना करना पड़ेगा कि उनके पिछले कदमों को भविष्य में कैसे आंकेंगे और क्या वे मौजूदा सुरक्षा ढाँचे में पुनः उपयोग किए जा सकते हैं। यह सब इस तथ्य को उजागर करता है कि सुरक्षा और संवाद के बीच की रेखा हमेशा ही धुंधली रहती है, और यही धुंधलापन अक्सर राजनेताओं के बीच विवाद का कारण बनता है।