अजय देवगन और तब्बू की रूमानी कहानी
नीरज पांडे द्वारा निर्देशित 'औरों में कहां दम था' एक ऐसी फिल्म है, जो दर्शकों को अजय देवगन और तब्बू जैसे अनुभवी अभिनेताओं के साथ एक पुरानी प्रेम कहानी की यात्रा पर ले जाती है। फिल्म की कहानी कृष्णा (अजय देवगन) और वासुधा (तब्बू) की है, जिनके बीच गहरी प्रेम बचपन से ही है, लेकिन हालात के चलते दोनों अलग हो जाते हैं। कृष्णा जेल में 22 साल गुजारता है, जबकि वासुधा अपने जीवन में आगे बढ़ जाती है, परंतु कृष्णा को भूल नहीं पाती।

कहानी की संरचना और निष्पादन
फिल्म का नैरेटिव अतीत और वर्तमान के बीच लहराता रहता है, जहां हम कृष्णा और वासुधा के कम उम्री संस्करणों को देखते हैं। शंतनु माहेश्वरी और साई मांजरेकर द्वारा निभाए गए युवा कृष्णा और वासुधा के पात्र अपनी केमिस्ट्री और संभावित प्रेम की कहानियों में नई उमंग लाते हैं। हालांकि, जब कहानी अजय देवगन और तब्बू जैसे अनुभवी अभिनेताओं के किरदार में बदलती है, तो यह कुछ सकरीय और अधूरी सी लगती है।

फिल्म का तकनीकी पक्ष
फिल्म की बैकग्राउंड स्कोर में भी एक खास आकर्षण की कमी है। एम.एम. क्रीम द्वारा बनाई गई संगीत बेशक कानों को अच्छा लगता है, लेकिन इसके बावजूद यह फिल्म के भावनात्मक पहलुओं को ठीक से उभार नहीं सका। इसके अलावा, फिल्म में स्थान और सेट के मामले में कोई नया पन नज़र नहीं आता, जो इसे और भी नीरस बनाता है।
फिल्म का ट्रेलर भी दर्शकों को अधिक विस्तार से दिखा देता है, जिससे हमें कोई नया मोड़ महसूस नहीं होता। मुख्य किरदार की प्रशंसा और भावुकता को बहुत अधिक आदर दिया गया है, जो बलिदान और प्रेम की भावना को कमजोर कर देता है।
किरदार और प्रदर्शन
कृष्णा और वासुधा के पुराने संस्करण के किरदारों को देखा जाए तो अजय देवगन का प्रदर्शन स्वतंत्र और मजबूती लिए हुए है, पर इस भूमिका में नयापन और स्वाभाविकता की कमी महसूस होती है। तब्बू अपने किरदार में गहराई और भावनात्मकता लाने की कोशिश करती हैं, परंतु कहानी की संरचना के चलते उनका प्रदर्शन भी सीमित दिखता है।
जिमी शेरगिल का किरदार फिल्म में एक तीसरे पक्ष के रूप में आता है, लेकिन उसकी उपस्थिति कहानी में बस एक सहज बतकही जैसे होती है। फिल्म में लाया गया आत्मनुभव हास्य भी ठीक से नहीं जम पाता है।
फिल्म की अंतिन दृश्य
फिल्म के क्लाइमेक्स में हमें एक पटाक्षेप दृश्य देखने को मिलता है जो कई दृष्टिकोणों से दिखाया गया है, और यह बहुत ही सामान्य रूप से दर्शाया गया है, जैसा कि हम अक्सर टीवी सोप ओपेरा में देखते हैं। यह फिल्म की दार्शनिकता को कमजोर बनाता है और दर्शकों को ज्यादा कुछ देने में असमर्थ रहता है।
कुल मिलाकर, 'औरों में कहां दम था' एक ऐसी फिल्म है जो दर्शकों को अपनी अच्छी कहानी और प्रामाणिक अभिनय का स्वाद तो देता है, लेकिन उसकी पुरानी शैली और कुछ अधूरी तथ्यों के चलते इसके प्रभाव में कमी रह जाती है।
Aryan Pawar
अगस्त 2, 2024 AT 23:17बेटा, फिल्म में अजय और तब्बू की केमिस्ट्री तो देख के दिल खुश हो गया। कहानी में थोड़ा पुराना फ़ेवर है लेकिन मनोरंजन है।
Shritam Mohanty
अगस्त 4, 2024 AT 03:04ये फिल्म बस एग्जीक्यूटिव का सस्ता फॉर्मूला है, देखने लायक नहीं। प्रोडक्शन ने पूरी तरह से बकवास बुन दिया।
Anuj Panchal
अगस्त 5, 2024 AT 06:50फिल्म का नैरेटिव स्ट्रक्चर काफी जटिल है, लेकिन समयरेखा के संक्रमण में कुछ कन्फ्यूजन रहता है। कैरेक्टर आर्क में अजय का जेल में बिताया समय एक ट्रांसफ़ॉर्मेटिव मॉमेंट बनाता है, फिर भी वह अपने इमोशनल फोकस को नहीं खोता। तब्बू का रोल वासुधा के रूप में बायोकेमिकली एंकर किया गया है, जिससे दर्शक इन दोनों के इंटिमेट मोमेंट्स को फील कर सके। यंग वर्जन्स को दर्शाने के लिए शैंटनु और साई ने लाइट और शैडो को बॅलेन्स किया है, हालांकि उनका स्क्रीन टाइम थोड़ा कम है। कुल मिलाकर, टोन में रिवर्सल एक्टिविटी देखा जा सकता है, जो दर्शकों को एंगेज रखता है।
Prakashchander Bhatt
अगस्त 6, 2024 AT 10:37बिलकुल ठीक कहा तुमने, फिल्म ने एंजॉयमेंट का लेवल थियोरी के हिसाब से बड़ी ग्रोथ दिखायी। कैरेक्टर के इमोशन को समझना आसान रहा और कहानी का फ्लो रीलैक्स्ड था।
Mala Strahle
अगस्त 7, 2024 AT 14:24फिल्म की कहानी में एक पुरानी स्मृति की हवा बहती है, जैसे बचपन की गलियों में शाम को खेलते हुए फिर से वही टैग बन जाती है।
क्रिश्ना और वासुधा का बचपन का बंधन एक स्थिर बिंदु बन जाता है, जो आगे की कहानी में भावनात्मक ग्रैविटी जोड़ता है।
जेल के 22 साल का अंकुरण सिर्फ टाइमपास नहीं, बल्कि एक इंट्रॉस्पेक्टिव जर्नी है जिससे वह अपने भीतर के दैत्य से टकराता है।
वहीं वासुधा का आगे का सफर एक रिइनवेंटेड सेल्फ का प्रतीक है, जो अपने सपनों को पुनः परिभाषित करती है।
फिल्म के बैकग्राउंड स्कोर में एम.एम. क्रीम ने एक मीमोरी फ्रेम जोड़ दिया, पर वह कभी-कभी सीन की अनजाने में भावनात्मक गहराई को डाइल्यूट कर देता है।
संवादों में जब अजीब तरह की लाइनें आती हैं, तो वे दर्शक को सोचने पर मजबूर करती हैं कि क्या यह वास्तविक भावना है या केवल सीन में भराव है।
नॉस्टैल्जिया का पेज़ बनाते हुए, निर्देशक ने फोकस को कभी-कभी तुच्छ मोमेंट में बँट दिया, जिससे दर्शकों को थोड़ा बोर महसूस हुआ।
जिमी शेरगिल का किरदार, जो तिसरे पक्ष को दर्शाता है, वह सीन में एक साइड प्लॉट की तरह फैला, लेकिन वह कभी मुख्य कहानी में जॉइन नहीं हुआ।
फिल्म के क्लाइमेक्स में पेट्रीट्रिशन का लव थ्रिल एक पैटर्न ब्रीक को टार्गेट करता है, पर वह अपेक्षित इमोशनल पाउडर नहीं डाल पाया।
तब्बू की बॉयलॉजिक इनटेंसिटी को दर्शाते हुए, वह अपने किरदार में गहराई जोड़ने की कोशिश करती है, परंतु पटकथा की सीमाओं ने उसे रोक दिया।
कुल मिलाकर, फिल्म में कुछ अनकहे भावनात्मक इंटरेक्शन हैं, जिनको देख कर मन में एक अजीब सी रिक्वायरी बनती है।
इसे एक सॉलिड इंटेलिजेंट ड्रामा कहा जा सकता है, जिसमें नायक की इंटर्नल स्ट्रगल और लव कोर डायलॉग के साथ फ्यूज़ किया गया है।
चरित्रों की इंटरेक्शन के दौरान, अचानक हुए मोमेंट्स को एक लॉक्ड फॉर्मेट में प्रस्तुत किया गया, जिससे कहानियों की फॉर्मेटेटेड कलाकृति सामने आती है।
सार में, यह फिल्म एक सिम्बायोटिक सिंड्रोमे को दर्शाती है, जहां भावनात्मक कंटेंट की गहराई को योग्यता के साथ पेश किया गया है।
Abhijit Pimpale
अगस्त 8, 2024 AT 18:10सिनॉप्सिस में ‘वह’ शब्दकोशीय त्रुटि है; इसे ‘वहां’ लिखा जाना चाहिए।
pradeep kumar
अगस्त 9, 2024 AT 21:57कहानी का रिदम बिखर गया, असर कमज़ोर है।
MONA RAMIDI
अगस्त 11, 2024 AT 01:44अरे यार, यह फ़िल्म तो बिल्कुल बेज़ार है!
Vinay Upadhyay
अगस्त 12, 2024 AT 05:30हाँ, फ़िल्म का क्लाइमैक्स देख कर लगता है जैसे टीवी पर एक सामान्य सॉप ऑपेरा दोबारा चल रहा हो।
Divyaa Patel
अगस्त 13, 2024 AT 09:17कलात्मक अभिव्यक्ति की झलक थोड़ी कम रही, पर फिर भी दिल को छू गई।